गायत्री महाविज्ञान अनुभूत प्रयोग - दरिद्रता का नाश, शत्रुता का संहार एवं भूत-बाधा की शान्ति !!
दरिद्रता का नाश--
दरिद्रता , हानि, ऋण,बेकारी, साधनहीनता, वस्तुओ का अभाव, कम आमदनी, बढा हुआ खर्च, कोई रुका हुआ आवश्यक कार्य आदि की व्यर्थ चिन्ता से मुक्ति दिलाने में गायत्री साधना बड़ी सहायक सिद्ध होती है। उससे ऐसी मनोभूमि तैयार हो जाती है, जो वर्तमान अर्थ-चक्र से निकलकर साधक को सन्तोषजनक स्थिति पर पंहुचा दे।
दरिद्रता -नाश के लिये गायत्री की 'श्री' शक्ति की उपासना करनी चहिये। मन्त्र के आरंभ तथा अन्त में तीन - तीन बार 'श्रीं' बीज का सम्पुट लगाना चहिये। साधना काल के लिए पीत वस्त्र ,पीले पुष्प ,पीला यज्ञोपवित ,पीला तिलक, पीला आसन प्रयोग करना चाहिये । शरीर पर शुक्रवार को हल्दी मिले हुए तेल की मालिश करनी चाहिये और रविवार को उपवास करना चाहिये। पीताम्बर धारी , हाथी पर चढ़ी हुई गायत्री का ध्यान करना चाहिये । पीतवर्ण लक्ष्मी का प्रतीक है, भोजन में पीली चीज़े प्रधान रूप से लेनी चाहिये। इस प्रकार की साधना से धन की वृद्धि और दरिद्रता का नाश होता है।
शत्रुता का संहार ---
द्देष ,कलह,मुकदमाबाजी, मनमुटाव को दूर करना और अत्याचारी , अन्यायी, अकारण आक्रमण करने वाली मनोवृति का संहार करना, आत्मा तथा समाज में शांति रखने के लिये चार 'क्लीं ' बीजमन्त्रो के सम्पुट समेत रक्त चन्दन की माला से पश्चिमाभिमुख होकर गायत्री का जप करना चाहिये । जप काल में सिर पर यज्ञ भस्म का तिलक लगाना तथा ऊन का आसन बिछाना चाहिये । लाल वस्त्र पहनकर सिंहारूढ़ ,खड़ग हस्ता, विकराल बदना, दुर्गा वेशधारी गायत्री का ध्यान करना चहिये।
जिन व्यक्तियों का द्देष-दुर्भाव निवारण करना हो उनका नाम पीपल के पत्ते पर रक्त चन्दन की स्याही और अनार की कलम से लिखना चाहिये । इस पत्ते को उल्टा रखकर प्रत्येक मन्त्र के बाद जल पात्र में से एक छोटी चम्मच भर के जल लेकर उस पत्ते पर डालना चाहिये । इस प्रकार १ ० ८ मन्त्र जपने चाहिये । इससे शत्रु के स्वाभाव का परिवर्तन होता है और उसकी द्देष करने वाली सामथर्य घट जाती है ।
भूत-बाधा की शान्ति --
कुछ मनोवैज्ञानिक कारणों, सांसारिक विकृतियो तथा प्रेतात्माओ के कोप से कई बार भूत बाधा के उपद्रव होने लगते है। कोई व्यक्ति उन्मादियों जैसी चेष्टा करने लगता है, उसके मस्तिष्क पर किसी दूसरी आत्मा का आधिपत्य दृष्टिगोचर होता है। इसके अतिरिक्त कोई मनुष्य या पशु ऐसी विचित्र दशा का रोगी होता है, जैसा कि साधारण रोगों से नहीं होता । भयानक आकृतियाँ दिखाई पड़ना , अद्रश्य मनुष्य द्दारा की जाने जैसी क्रियाओ का देखा जाना भूत बाधा के लक्षण है।
इसके लिये गायत्री हवन सर्वश्रेष्ट है। सतोगुणी हवन सामग्री से विधिपूर्वक यज्ञ करना चाहिये और रोगी को उसके निकट बिठा लेना चाहिये ,हवन की अग्नि में तपाया हुआ जल रोगी को पिलाना चाहिये,बुझी हुई यज्ञ भस्म सुरक्षित रख लेनी चाहिये, किसी को अचानक भूत बाधा हो तो उस यज्ञ-भस्म को ह्रदय ,ग्रीवा, मस्तक, नेत्र ,कर्ण ,मुख,नासिका आदि पर लगाना चाहिए ।
दरिद्रता , हानि, ऋण,बेकारी, साधनहीनता, वस्तुओ का अभाव, कम आमदनी, बढा हुआ खर्च, कोई रुका हुआ आवश्यक कार्य आदि की व्यर्थ चिन्ता से मुक्ति दिलाने में गायत्री साधना बड़ी सहायक सिद्ध होती है। उससे ऐसी मनोभूमि तैयार हो जाती है, जो वर्तमान अर्थ-चक्र से निकलकर साधक को सन्तोषजनक स्थिति पर पंहुचा दे।
दरिद्रता -नाश के लिये गायत्री की 'श्री' शक्ति की उपासना करनी चहिये। मन्त्र के आरंभ तथा अन्त में तीन - तीन बार 'श्रीं' बीज का सम्पुट लगाना चहिये। साधना काल के लिए पीत वस्त्र ,पीले पुष्प ,पीला यज्ञोपवित ,पीला तिलक, पीला आसन प्रयोग करना चाहिये । शरीर पर शुक्रवार को हल्दी मिले हुए तेल की मालिश करनी चाहिये और रविवार को उपवास करना चाहिये। पीताम्बर धारी , हाथी पर चढ़ी हुई गायत्री का ध्यान करना चाहिये । पीतवर्ण लक्ष्मी का प्रतीक है, भोजन में पीली चीज़े प्रधान रूप से लेनी चाहिये। इस प्रकार की साधना से धन की वृद्धि और दरिद्रता का नाश होता है।
शत्रुता का संहार ---
द्देष ,कलह,मुकदमाबाजी, मनमुटाव को दूर करना और अत्याचारी , अन्यायी, अकारण आक्रमण करने वाली मनोवृति का संहार करना, आत्मा तथा समाज में शांति रखने के लिये चार 'क्लीं ' बीजमन्त्रो के सम्पुट समेत रक्त चन्दन की माला से पश्चिमाभिमुख होकर गायत्री का जप करना चाहिये । जप काल में सिर पर यज्ञ भस्म का तिलक लगाना तथा ऊन का आसन बिछाना चाहिये । लाल वस्त्र पहनकर सिंहारूढ़ ,खड़ग हस्ता, विकराल बदना, दुर्गा वेशधारी गायत्री का ध्यान करना चहिये।
जिन व्यक्तियों का द्देष-दुर्भाव निवारण करना हो उनका नाम पीपल के पत्ते पर रक्त चन्दन की स्याही और अनार की कलम से लिखना चाहिये । इस पत्ते को उल्टा रखकर प्रत्येक मन्त्र के बाद जल पात्र में से एक छोटी चम्मच भर के जल लेकर उस पत्ते पर डालना चाहिये । इस प्रकार १ ० ८ मन्त्र जपने चाहिये । इससे शत्रु के स्वाभाव का परिवर्तन होता है और उसकी द्देष करने वाली सामथर्य घट जाती है ।
भूत-बाधा की शान्ति --
कुछ मनोवैज्ञानिक कारणों, सांसारिक विकृतियो तथा प्रेतात्माओ के कोप से कई बार भूत बाधा के उपद्रव होने लगते है। कोई व्यक्ति उन्मादियों जैसी चेष्टा करने लगता है, उसके मस्तिष्क पर किसी दूसरी आत्मा का आधिपत्य दृष्टिगोचर होता है। इसके अतिरिक्त कोई मनुष्य या पशु ऐसी विचित्र दशा का रोगी होता है, जैसा कि साधारण रोगों से नहीं होता । भयानक आकृतियाँ दिखाई पड़ना , अद्रश्य मनुष्य द्दारा की जाने जैसी क्रियाओ का देखा जाना भूत बाधा के लक्षण है।
इसके लिये गायत्री हवन सर्वश्रेष्ट है। सतोगुणी हवन सामग्री से विधिपूर्वक यज्ञ करना चाहिये और रोगी को उसके निकट बिठा लेना चाहिये ,हवन की अग्नि में तपाया हुआ जल रोगी को पिलाना चाहिये,बुझी हुई यज्ञ भस्म सुरक्षित रख लेनी चाहिये, किसी को अचानक भूत बाधा हो तो उस यज्ञ-भस्म को ह्रदय ,ग्रीवा, मस्तक, नेत्र ,कर्ण ,मुख,नासिका आदि पर लगाना चाहिए ।
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